एक फुरसती ज़माना था जब जनता नदी नाले के किनारे बैठा करती,
गप शाप मारती और गीत गाती और सुनती। उस दौर की कल्पना
करना भी शायद आधुनिक युग में affordable नहीं है। साफ़ सुथरी
फ़िल्में बनाने के लिए विख्यात बासु चटर्जी की इस फिल्म ने
ज्यादा बिज़नेस नहीं किया मगर जनता द्वारा सराही अवश्य
गई। ये जी जनाब सराहने वाली जनता है ना, उसके बलबूते पर
बॉलीवुड की रोजी रोटी नहीं चलती। वो चलती है जब सिनेमा हॉल
की आगे की सीट से पीछे की सीट तक जगह ना बची हो। जिसे हम
चवन्नी क्लास कहते हैं, कई नामचीन नायकों की रोजी रोटी वहीँ से
निकल के आई। कभी कभार आंशिक कडकी के चलते हम भी उस
क्लास का आनंद उठा चुके हैं।
बासु की खूबी ये है कि उन्होंने हमारे इर्द गिर्द के और आम जीवन
के सामान्यतया ना छुए जाने वाले पहलुओं को बहुत सहजता से
प्रस्तुत किया परदे पर, दर्शक को यही लगा जैसे वो रोजमर्रा की
कोई आम घटना से रूबरू हो रहा हो। बाकी के निर्देशक अवास्तविकता
को वास्तविकता में तब्दील करने का प्रयत्न करते रहे और बासु चटर्जी
वास्तविकता को सरलता से प्रस्तुत करने में। शत प्रतिशत वास्तविक
हम किसी भी फ़िल्मी कथानक को नहीं कह सकते क्यूंकि नाटकीयता
आवश्यक तत्त्व है मंच और फिल्मों का। फर्क करना होता है हमें तो
बस नाटकीयता, जीवंत नाटकीयता, अति नाटकीयता, फूहड़ता और
मूढ़ता में । कल्पनाशीलता जब इनमे से किसी भी एक तत्त्व से चिपक
जाती है तो उसी तत्त्व विशेष को बढावा देती है। कल्पनाशीलता निर्देशक
के पास होना पहली अनिवार्य शर्त है, उसके बाद नंबर आता है कलाकारों
का। कल्पनाशीलता प्रस्तुतीकरण को बेहतर बनाने का काम करती है।
प्रस्तुत गीत में आपको जो कलाकार दिखाई देंगे उनके नाम इस
प्रकार से हैं-धर्मेन्द्र, असरानी, हेमा मालिनी और मिठू मुखर्जी।
पांचवे शख्स को शायद आप ना पहचान पायें तो आपको एक क्लू
देता हूँ-महाभारत सीरियल में मामा शकुनि की भूमिका निभाने
वाला कलाकार।
गीत के बोल:
मैं कौन सा गीत सुनाऊँ
क्या गाऊं जो पिया बस जाये
तेरे तन मन में
खिल जाएँ सोयी कलियाँ, हाय कलियाँ
और बहारें आयें सूनी बगियाँ में
ये कैसे अचानक बिना कोई आहट
चले आये हो तुम मेरी ज़िन्दगी में
तुम्हें आज पा कर मैं सब कुछ भुला कर
मगन हो के डूबी हुई हूँ ख़ुशी में
इतने ही रंग सलोने, हाय सलोने
भर गये हैं मेरे खाली सावन में
मैं कौन सा गीत सुनाऊँ
क्या गाऊं जो पिया बस जाये
तेरे तन मन में
कभी तुम सहारा बनोगे हमारा
मैं ये बात कल तक नहीं मानती थी
मगर आज कैसे ये लगता है जैसे
मैं हर जनम में तुम्हें जानती थी
लगता है सारी दुनिया, सारी दुनिया
भर गई है जैसे सज के कण कण में
मैं कौन सा गीत सुनाऊँ
क्या गाऊं जो पिया बस जाये
तेरे तन मन में
खिल जाएँ सोयी कलियाँ, हाय कलियाँ
और बहारें आयें सूनी बगियाँ में
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Main kaun sa geet sunaaon-Dillagi 1978
Sunday, 12 June 2011
मैं कौन सा गीत सुनाऊँ-दिल्लगी १९७८
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बहुत अच्छी जानकरी सुंदर गीत के बारेमें👌
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