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Saturday, 2 July 2011

दर्पण को देखा-उपासना १९७१

थोड़ा साहित्यिक हुआ जाये फिर से ? कुछ संगीत प्रेमियों का
दोमुंहापन कभी कभी खटकता है मुझे। अगर 'आईना' बोलें तो
साहित्यिक नहीं होता मगर जब 'दर्पण' बोल दिया तो साहित्यिक
हो गया। दरअसल हम खिचड़ी भाषा युग में जी रहे हैं जिसकी
हिंगलिश ने भी कस के वाट लगा दी है जो धीरे धीरे कई किलोवाट
तक हो जाएगी।

गीत में, नायिका असमंजस में है-क्यूँ है-थोड़ा प्रकाश डालते हैं-
फिल्म उपासना में मुमताज़ संजय खान से प्रेम करती हैं।
संजय खान को मुमताज़ मजबूरीवश छोडती है जिसके लिए उस
दुष्ट महकमे के लोग ज़िम्मेदार होते हैं जिनके लिए वो अनजाने
में काम करती है। एक गुंडे की चम्पी करने के बाद जब वो भाग
रही होती है तभी फिरोज खान कि कार से टकरा जाती है। फिरोज
खान उसे घर ले आता है और उसकी देखभाल करता है । जब वो
ठीक हो जाती है तब उसे गीत सुनाता है। नायिका के ठीक होने की
प्रक्रिया में नायक उससे प्रेम करने लगता है। शराफत के ज़माने
का गीत है इसलिए नायक घुमा फिर के उससे अपने प्रेम का इज़हार
कर रहा है और अपनी बदनसीबी की गिला रो रहा है।

या तो नायिका किसी नए सम्बन्ध में नहीं उलझना चाहती या फिर
उसकी मानसिक स्तिथि नायक की भावनाओं को समझने लायक
नहीं हुई है। ज्यादा जाने के लिए देखें फिल्म उपासना।

मुकेश के सबसे लोकप्रिय गीतों में इसकी गिनती होती है । इसे लिखा
है इन्दीवर ने और इसकी धुन बनाई है कल्याणजी आनंदजी ने। गीत
में सरल हिंदी बोलों का समावेश है और ये उतना साहित्यिक नहीं जितना
की पब्लिक इसको बतलाती है। इसके अलावा इसमें उर्दू शब्द भी
बहुतेरे हैं।



गीत के बोल:

दर्पण को देखा
तूने जब जब किया श्रृंगार

दर्पण को देखा
तूने जब जब किया श्रृंगार

फूलों को देखा
तूने जब जब आई बाहर

एक बदनसीब हूँ मैं
एक बदनसीब हूँ मैं
एक बदनसीब हूँ मैं,
मुझे नहीं देखा एक बार

दर्पण को देखा
तूने जब जब किया श्रृंगार

सूरज की पहली किरणों को
देखा तूने अलसाते हुए
सूरज की पहली किरणों को
देखा तूने अलसाते हुए
रातों में तारों को देखा
सपनो में खो जाते हुए

यूं किसी ना किसी बहाने
यूं किसी ना किसी बहाने
तूने देखा सब संसार
तूने देखा सब संसार

दर्पण को देखा
तूने जब जब किया श्रृंगार

काजल की किस्मत क्या कहिये
नैनों में तुमने बसाया है
काजल की किस्मत क्या कहिये
नैनों में तुमने बसाया है
आँचल की किस्मत क्या कहिये
तुमने अंग लगाया है

हसरत ही रही मेरे दिल में
हसरत ही रही मेरे दिल में
बनूँ तेरे गले का हार
बनूँ तेरे गले का हार

दर्पण को देखा
तूने जब जब किया श्रृंगार

फूलों को देखा
तूने जब जब आई बाहर

एक बदनसीब हूँ मैं
एक बदनसीब हूँ मैं
एक बदनसीब हूँ मैं,
मुझे नहीं देखा एक बार

दर्पण को देखा
तूने जब जब किया श्रृंगार
...............................
Darpan ko dekha-Upasana 1969

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