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Sunday, 3 April 2011

आजकल पांव ज़मीन पर-घर १९७५

बल्ले बल्ले हो गया जी, ये शब्द सुने मैंने कल जब भारत की
टीम ने विश्व कप जीता। तमाम प्रकार के नारे स्लोगन सुनाई दे
गये जिन्हें सुने हुए एक अरसा हो गया था । ये सब नारे सुनने को
मेरे भी कान सन १९८३ के बाद से तरस रहे थे।

मित्रों, क्षमा चाहूँगा होली के अवसर पर आपसे मुखातिब नहीं
हो पाया। रोजी रोटी कभी कभी ज्यादा चक्कर खिला दिया करती है।
इस चक्कर घिन्निये दौर में से कुछ समय निकाल कर आज जंग
लगे दिमाग को कुछ साफ़ करने की कोशिश करता हूँ।

तो साहब मार्च का पूरा महीना वर्ल्ड कप फीवर में गुज़रा। अब
भाफ्रत की टीम ने कप जीत लिया है तो कई दर्शक भी फूले
नहीं समा रहे। ऐसे में एक गीत पेश है जो खिलाडियों और
दर्शकों दोनों की भावनाओं को शायद समझा सके। ये मौका
ज़बरदस्त दिया टीम इंडिया ने देश की सवा अरब आबादी को
जश्न मनाने का।

गुलज़ार का लिखा ये गीत लता मंगेशकर ने गाया है और धुन
बनाई है राहुल देव बर्मन ने।



गीत के बोल:

आजकल पांव ज़मीन पर नहीं पढ़ते मेरे
आजकल पांव ज़मीन पर नहीं पढ़ते मेरे
बोलो देखा है कभी तुमने मुझे उड़ते हुए

आजकल पांव ज़मीन पर नहीं पढ़ते मेरे

जब भी थामा है तेरा हाथ तो देखा है
जब भी थामा है तेरा हाथ तो देखा है
लोग कहते हैं की बस हाथ की रेखा है
हमने देखा है जो तकदीरों को जुड़ते हुए

आजकल पांव ज़मीन पर नहीं पढ़ते मेरे
बोलो देखा है कभी तुमने मुझे उड़ते हुए

आजकल पांव ज़मीन पर नहीं पढ़ते मेरे

नींद सी रहती है हल्का सा नशा रहता है
रात दिन आँखों में एक तेरा पता रहता है
पर लगी आँखों को देखा है कभी उड़ते हुए

आजकल पांव ज़मीन पर नहीं पढ़ते मेरे
बोलो देखा है कभी तुमने मुझे उड़ते हुए

आजकल पांव ज़मीन पर नहीं पढ़ते मेरे

जाने क्या होता है हर बात पे कुछ होता है
दिन में कुछ होता है और रात में कुछ होता है
थाम लेना जो कभी देखो हमें उड़ते हुए

आजकल पांव ज़मीन पर नहीं पढ़ते मेरे
बोलो देखा है कभी तुमने मुझे उड़ते हुए

आजकल पांव ज़मीन पर नहीं पढ़ते मेरे

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